मैं नहीं जानती मैं क्या लिख रही हूँ कैसे लिखना है ये भी नहीं जानती !बस जब भी उदास होती हूँ ,या बहुत ज्यादा खुश होती हूँ ये कागज और कलम एक दोस्त से दिखते हैं और जो दिल में होता है एक कागज पर उकेर देती हूँ
इसलिए मैंने इसका नाम आईना रखा है क्योंकि ये मेरे दिल कि सूरत दिखाता है!
अपने बारे में क्या कहूँ, एक अनसुलझी पहेली सी हूँ.कभी भीड़ में अकेलापन महसूस करती हूँ! तो कभी तन्हाइयों में भरी महफिल महसूस करती हूँ! कभी रोते रोते हँसती हूँ, तो कभी हंसते हंसते रो पडती हूँ.
मैं खुश होती हूँ तो लगता है,सारी दुनिया खुश है,और जब दुखी होती हूँ तो सारी कायनात रोती दिखती है!
क्या हूँ मैं, नहीं जानती,बस ऐसी ही हूँ मैं,
एक भूलभुलैया.......
कभी तो तुम भी उलट पलट करोगे अपनी जिन्दगी की किताब को तब कहीं ना कहीं,किसी कोने में ही ,वर्ना आखिरी पन्ने पर ही मेरा कहीं तो जिक्र किया होगा तब मेरी याद तो आएगी ना एक बार ही सही। ………. 16/9/13..........
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