कभी सूर्य को ढलते हुए देखा है
कैसे उसकी चमक फीकी होती जाती है
ऐसे ही मैंने अपने को देखा है,मुरझाते हुए
सिमटती जा रही हूँ ,अपने में ही
अपने को पड़ती हूँ,रात्रि के आधे पहर में
और घंटो रोती हूँ ,सिर्फ अपने लिए..........
अपने को कतरा -कतरा घटते सिर्फ देख रही हूँ
कुछ नही कर पा रही
क्या कभी फिर से पहले की तरह
उन्मुक्त गगन में उड़ पाऊँगी
क्या मिलेगा मुझे कोई
जो मुझे उड़ने के लिए पर देगा .............
शायद हाँ ,,,,,,तभी तो किसी का इंतज़ार रहता है
इन सूनी आँखों को......................... 21 -6 -14 …………