रात का सन्नाटा,नदी का किनारा
मैं बैठे हुए नदी को निहार रहा हूँ
नदी की कल कल करती लहरों में
मैं कुछ खो सा जाता हूँ
कि अचानक वहाँ से ऊंटों का काफिला देखता हूँ.
नदी में छप छप करती आवाजों के बीच
अचानक एक हंसी मेरे कानो को
मंदिर के घंटों की तरह लगती है,
मैं देखता हूँ कि,
तुम,मेरे ख्वावों में से निकल कर
दूध में नहाई चांदनी की तरह
एकदम मेरे सामने से निकल कर जा रही हो
वो परियों की रानी सी तुम
और मैं तुम्हें निहारता जा रहा हूँ कि अचानक
नदी में लहरें जोर पकडती हुई
मुझे झकझोर देती हैं,
और एकदम से तुम कहीं गायब हो जाती हो
और फिर वहाँ मैं तुम्हारी छवि निहारता
तुम्हारे स्पर्श का गीलापन लिए
देखता हूँ कि
वहाँ पर तो सिर्फ रात का सन्नाटा है
और है नदी कि कल कल करती लहरें....
मैं बैठे हुए नदी को निहार रहा हूँ
नदी की कल कल करती लहरों में
मैं कुछ खो सा जाता हूँ
कि अचानक वहाँ से ऊंटों का काफिला देखता हूँ.
नदी में छप छप करती आवाजों के बीच
अचानक एक हंसी मेरे कानो को
मंदिर के घंटों की तरह लगती है,
मैं देखता हूँ कि,
तुम,मेरे ख्वावों में से निकल कर
दूध में नहाई चांदनी की तरह
एकदम मेरे सामने से निकल कर जा रही हो
वो परियों की रानी सी तुम
और मैं तुम्हें निहारता जा रहा हूँ कि अचानक
नदी में लहरें जोर पकडती हुई
मुझे झकझोर देती हैं,
और एकदम से तुम कहीं गायब हो जाती हो
और फिर वहाँ मैं तुम्हारी छवि निहारता
तुम्हारे स्पर्श का गीलापन लिए
देखता हूँ कि
वहाँ पर तो सिर्फ रात का सन्नाटा है
और है नदी कि कल कल करती लहरें....
No comments:
Post a Comment