बहुत समय के बाद आइने के सामने आई तो
आइने के सामने खड़ी
देख रही हूँ
एक कांतिहीन-मुर्झाई सी एक आकृति
वो अजीब सी धुंधली सी मूरत
बेतरतीब से कपड़े,उलझे से बाल
जो शायद अपनी पहचान तक खो बैठे हैं
कोई जानी-पहचानी सी
तस्वीर सा खड़ा है कोई,मूरत बनके
पर,कौन है,पहचान नही पा रही हूँ
वैसे तो आइने में खुद की ही झलक दिखती है,
फिर ये मेरी जगह कौन है,क्या ये मैं हूँ?
नही,ये मैं तो हो ही नही सकती,
मैं तो सर्दी की गुनगुनी धूप सी हूँ,
गर्मी की छाँव हूँ,हरदम मुस्काती माँ की परी हूँ.
और जो सामने आइने में है,
वो तो कोई पतझड का रूप लिए है,
बिना फूल का ठूँठ सा पेड़ है जिसमे
हरियाली का नामोनिशान तक नही,
ये कौन मेरे आइने में है जो मुझे
मेरी ही सूरत नही देखने दे रही.....